प्रोफेसर राम नारायण द्विवेदी, महामंत्री, काशी विद्वत परिषद, व्याकरण ज्योतिष शास्त्र के विद्वान जी ने श्री मयखाना महाग्रंथ पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा :-
सानन्दमानन्द-वने वसन्तं आनन्द-कन्दं हत-पाप-वृन्दम् ।
वाराणसी-नाथमनाथ-नाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये ॥
व्याकरण का छात्र होने के कारण मयखाना की संज्ञा के बारे में बताता हूँ। वस्तुतः मय यानी माया का जो नाश करे, अर्थात जो बंद (वंद) से निवृत करे। बंद (वंद) से निवृत होने पर माया का नाश होता है।
इस ग्रन्थ में सारगर्भित तत्व है- अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाना। वही तो मोक्ष है। यह अविद्या का नाश करता है। जब हमारे सभी कर्मो का नाश हो जाता है तब हमें निर्वाण की प्राप्ति होती है। माया का नाश ही मयखाना है। हिंदी में जिसे कहेंगे खा लिया गया। व्याकरण की दृष्टि से “खाद्यते आस्वाद्यते” कहेंगे। माया का स्वादन करते हुए ब्रह्म की प्राप्ति। बिना अविद्या के ज्ञान के सविद्या का ज्ञान संभव नहीं है। हमारे यहाँ शब्द ब्रह्म है। इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय है वो वस्तुतः समस्त जीवो के लिए लोक उपकारी है। इसपर चर्चा, चिंतन और मंथन होने की आवश्यकता है। मयखाना का एक एक दोहा संसार को एक नयी दृष्टि और नयी दिशा प्रदान करेगा।