मयः सुखम् वाजसनेय संहितायाम् (22/19) हयोऽस्मत्योऽस्ति मयोऽस्यर्व्वासि।
मयोऽसि भयते गच्छति मय: “मयगतौ” पचाघच् ।
यदा मय इति सुखनाम सुखरूपोऽस्ति।
इति (तद्भाष्ये महीधरः)।
अर्थात् मय का अर्थ जो सतत गमनशील हो, व्यापक हो, वह मय है, अर्थात् ब्रह्म है। खनि:= खानि:= रत्नादि- उत्पत्तिस्थानम्= अर्थात् जो खान-खदान- जिससे बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते है ,वैसे यह ग्रन्थ अमूल्य- ब्रह्म की प्राप्ति का स्थान है, जिसके पाठ से सद्य: ब्रह्मा की प्राप्ति= साक्षात्कार= बोध होता है।
अथवा मय: खाद्यते आस्वायते यभ “खै”- भक्षणे धातु से खाना शब्द निष्यन्न होता है। जिससे अर्थ स्पष्ट है – मय: का अर्थात् सर्वत्र व्याप्त सुखस्वरूप सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा का जिस ग्रन्थ के अध्ययन से आस्वादन= अनुभव किया जाए, वही महाग्रंथ मयख़ाना है।
और भी, मय का अर्थ मधु करने पर, तथा वह जहां प्राप्त हो, वह मयख़ाना है। जैसे जब मधु का नाश होता है तो जगत का व्यवहार शून्य हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म का बोध होने पर जागतिक पदार्थ व व्यवहार शून्य हो जाते हैं। वह उसी तत्व का चिंतन करते करते “ब्रहनविर ब्रहनैव भवति“ – ब्रह्मको जानने वाला साक्षात् ब्रह्म स्वरुप हो जाता है ।
महाग्रंथ मयख़ाना का अध्ययन-वन्दन-नमन करने से परमानन्द परम सुख की प्राप्ति होती है।
क्यों न हो ? क्यूँकि इसकी रचना 12 वर्ष की अवस्था में साक्षात् नारायण की प्रेरणा से ब्रह्मवेत्ता पूज्य श्री गुरुदेव महाराज महाब्रह्मऋषि श्री कुमार स्वामी जी द्वारा की गई है। गुरुदेव स्वयं कहते है कि मैंने इसे नहीं लिखा अपितु किसी दिव्यशक्ति की प्रेरणा से ही इस महाग्रंथ का आविर्भाव हुआ है। इसके अध्ययन से संसार के सर्वविद्य सुख की प्राप्ति के साथ तत्व का बोध होता है। महापुरुषों की वाणी साक्षात् वेदवाणी- आर्षवचन होते हैं। इनका एक अक्षर-वर्ण भी अनर्थक नहीं होता है-
‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमथोऽनुधावति’ अर्थात ऋषि- महापुरुष जो कहते हैं, वह यथार्थ होता है। यदि विश्वासपूर्वक उसका आचरण किया जाए, तो सर्व विध इच्छित फल की प्राप्ति होती है।
प्रोफेसर दिनेश कुमार गर्ग
कोषाध्यक्ष / राष्ट्रीय प्रवक्ता
श्री काशी विद्वत परिषद